भगवत गीता से समजिये महभारत का मुख्य कारन।
दोस्तों, यदि हम किसी से भी पूछेंगे की महाभारत का युद्ध क्यों हुआ तो ज्यादातर लोग यही कहेंगे की द्रौपदी की बजह से ये यूद्ध हुआ। यदि द्रौपदी दुर्योधन का अपमान न करती तो ये यूद्ध कभी भी नहीं होता। ये हमारी मानसिकता है की यदि परिवार में कुछ भी गलत हो तो उसका दोषारोपण घर की स्त्री पे ही किया जाता है।
कोई शकुनि के कारन कहेगा तो कोई दुर्योधन को उसका कारन बताएगा। पर ये real reason mahabharat का नहीं है।
आज मैंने जब गीता पढ़ी और उसके पहले ही श्लोक में इस महाभारत का मुख्य कारन दिखाया गया है। जिस पर आज तक किसी शायद ध्यान ही नहीं गया है। भगवत गीता खोलते ही सब से पहला श्लोक आता है
धृतराष्ट्र उवाच |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्ज य ||1||
'धृतराष्ट्र ने कहा हे संजय धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव) मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया' ?
यदि इस श्लोक को ध्यान से पढ़ेंगे तो पाएंगे की, यहाँ पर धुतरास्ट्र ने ' मेरे और पाण्डु के पुत्र' कहा है। बस यही सबसे बड़ा कारन है इस महाभारत के युद्ध का। धुतरास्ट्र ने हमेशा से ही अपने और भाई पांडु के पुत्रो में हमेशा भेद भाव किया है।
वैसे आज भी हम भाई के बच्चे को अपना मानते है। आज भी कई घरो में भाई के गुज़र जाने के बाद उसके बच्चे को दूसरा भाई अपने बच्चे जैसे ही पालता है। जब आज ये हाल है तो आज से पांच हजार वर्ष पूर्व तो भाई के बच्चे और अपने बच्चो में कभी भी भेद भाव नहीं होता था। उस समय धृतराष्ट के मन में अपने और अपने भाई के पुत्रो के बिच में भेद भाव था।
उसके सिवाय भी महाभारत में जगह - जगह पर धूतरास्ट्र की इर्षा, द्वेष और भेद भाव दिखाई देते है। उसकी इर्षा न केवल पांडवो के प्रति थी पर उसके छोटे भाई पाण्डु के प्रति भी थी। तभी जब पाण्डु ने वन में जाने को कहा उस समय धृतराष्ट ने पाण्डु का पूर्ण समर्थन किया।
जब पाण्डु वन में थे उस समय उसको अपने छोटे भाई की चिंता से ज्यादा अपने पुत्र प्राति की चिंता ज्यादा सत्ता रही थी। ताकि सबसे बड़ा पुत्र होने के नाते उसके पुत्र को राज्य मिले। जब उसको ये समाचार मिला की पाण्डु को पुत्र प्राप्त हुआ है (युधिष्ठिर ) उसके पहले तब उसकी उसकी इर्षा और छटपटाहट का वर्णन महाभारत में किया गया है।
पाण्डु के मृत्यु के बाद जब पाण्डु पुत्र महल में आये तब न केवा शकुनि और दुर्योधन किन्तु धृतराष्ट को भी अच्छा नहीं लगा था। किन्तु प्रजा और पितामह भीष्म के डर के कारन वो कुछ भी नहीं कर पाया। किन्तु वो वही पर रुका नहीं उसने पुरे प्रयास किये पांडवो की शिक्षा अचे से न हो ताकि वे बड़े हो कर सिंहासन पे बेथ ने के काबिल न बने। भीम को जहर खिला ने के मूक साक्षी भी धीतराष्ट्र ही थे।
वे पांडवो के प्रति इतनी इर्षा थी की जब बड़े होने के नाते युधिष्ठिर को युवराज बना गया तब भी उसने सिंहासन नहीं छोड़ा। और तो और दुर्योधन और शकुनि की लाक्षगृह का निर्माण किया जहा पर पांडवो और उनकी माता कुंती को जिन्दा जलाया जा सके। ताकि उसके पुत्र दुर्योधन राजा बन सके। ऐसा नीच काम एक राजा हो कर उसने न केवल सोचा पर किया भी।
यदि केवल भेदभाव ही होते तब भी शायद ये महाभारत का युद्ध नहीं होता। पर धृतराष्ट के मन में पांडवो के प्रति द्वेष भी था। वे पांडवो की success से हमेशा ही जलता था। वो कभी भी पांडवो को कुछ भी देने के पक्ष में नहीं थे, जब की पूरा राज्य पांडवो का ही था। जब पांडवो को राज्य देने के लिए विवेश हुए तब उनको खांडव वन दिया। जहा बंजर भूमि थी, वहा पर कोई भी नहीं रह सकता। उसके सिवाय पांडवो को कुछ नहीं दिया।
जब पांडवो ने महेनत और श्री कृष्ण की वह पर नगर और महेल बनाया तब न केवल दुर्योधन किन्तु धृतराष्ट्र भी अंदर से जान भून गया इसीलिए वो पांडवो को मिलने उनके नगर में नहीं गया। और तो और शकुनि और दुर्योधन के साथ मिलकर उसने धूर्त (जुआ) खेल ने की आड़ में पांडवो से सबकुछ हड़पने की साज़िश करि।
पांडवो के प्रति उसको इतनी नफ़रत थी की, उस राज्य सभा में न केवल पांडवो से सबकुछ छिन लिया किन्तु द्रोपदी के वस्त्र हरण के समय भी वे मूक रहे।
उसकी ये नफ़रत महभारत के युद्ध के बाद भी काम नहीं हुए उसका उदहारण था, जब युद्व के बाद पांडव उनसे मिलने आये तब छल से उसने भीम को अपने पास बुलाकर उसको मरनेका प्रयास किया।
दोस्तों, महाभारत के पन्ने-पन्ने पर धूतराष्ट के छल, प्रपंच, इर्षा से भरे हुआ है। अपने पुत्र को राजा बनाने की लालसा में उसने अपने भाई के पुत्रो के साथ जो छल और प्रपंच किये थे उसीका कर्म का फल था ये महाभारत का युद्ध। युद्ध में भी उसने एक क्षण भी अपने भाई के पुत्रो के प्रति दया या चिंता नहीं जताई थी।
धूतराष्ट महाभारत का सब बड़ा कारन इसलिए भी था की वो एक राजा था। दूसरे शब्दों में कहे तो वो एक मुखिया था। यदि वे चाहता तो पांडवो और अपने पुत्रो के बिच में प्रेम भाव रख के बड़ी ही सरलता से महभारत युद्ध को टाल सकता था। पर उसको तो पांडवो को कुछ भी नहीं देना था। उसका उदहारण है महाभारत के युद्ध के पहले भगवान श्री कृष्ण ने केवल पांच गांव मांगे थे। यदि वो दे देता तब भी ये युद्ध नहीं होता।
महाभारत और धूतराष्ट से हमें एक ही बात सिखने को मिलती है। जब भी घर का मुखिया घर के सदस्यों के प्रति भेद-भाव करेगा उस घर में महाभारत होनी निश्चित है।
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